संगीत मार्तंड पंडित जसराज की जीवनगाथा पर आधारित किताब के अंश... कुछ किस्से खुद पद्म विभूषण पंडित जसराज की जुबानी... तो कुछ समकालीन शख्सियतों की जुबानी…
पढ़िए सुनीता बुद्धिराजा की लिखी किताब ‘रसराज : पंडित जसराज’ के कुछ किस्से
संगीत के लिए एक ‘प्यारा-सा दिल’ चाहिए। उस ‘प्यारे-से दिल’ के साथ पंडित जसराज का परिचय महादेवी वर्मा ने करवाया। कलकत्ता के न्यू एम्पायर थियेटर में एक कार्यक्रम हुआ। महादेवी जी आई थीं। हम गाकर उठे और उनसे मिलने गए, बहुत खुश हुईं। बोलीं- इलाहाबाद नहीं आते, मैंने कहा- आता तो हूं। बोलीं- तब मिला करो। अगली बार जब इलाहाबाद गया तब उनसे मिलने उनके घर गया तो कहने लगीं, अनुज! जसराज नहीं, पंडित जसराज नहीं, अनुज! अनुज, तुम गाते तो बहुत अच्छा हो, पर थोड़ा-सा प्यार करो न! हमको तो पहले समझ में नहीं आया। कहा- इतना अच्छा, स्पष्ट बोलते हो, पीछे भावना भी लाओ न! अब साहब, इतनी बड़ी इतनी महान व्यक्ति ने यह बात कही तो थोड़ा-सा गौर किया। सच में क्या कि हम कुएं पर तो जरूर खड़े हैं, मगर मुंडेर पर खड़े हैं, नीचे पानी में नहीं उतरे। बस आंख के आगे से पर्दा हट गया।
केशवचन्द्र वर्मा जी ने अपनी पुस्तक ‘संगीत को समझने की कला’ में एक स्थान पर लिखा है कि गायक तो बहुत सारे, बहुत अच्छे-अच्छे हैं, किन्तु जसराज जी की एक विशेष बात यह है कि वे अपनी बंदिशों का चुनाव बहुत सुन्दर करते हैं। उन्हें गाते भी उतने ही सुन्दर ढंग से हैं, बिना साहित्य को तोड़े-मरोड़े। सम्भवतः साहित्यकारों के साथ उनका नैकट्य ही इसका एक कारण रहा हो।
‘अज्ञेय जी के साथ हमारा परिचय महादेवी जी ने करवाया था। उन्होंने प्रयाग संगीत समिति के एक कार्यक्रम में मुझे अपने और अज्ञेय जी के बीच में मंच पर बैठा दिया। साहित्य और संगीत का यह अद्भुत मिलन था। इसके बाद अज्ञेय जी से हमारी अच्छी भेंट-मुलाकातें होने लगीं। उनका अपना एक बंगला था, जिसके परिसर में उन्होंने एक झोपड़ी बनाई हुई थी। वहां हम कई बार जाते-आते थे, वो बहुत विद्वान सज्जन थे।’
केशवचन्द्र वर्मा, कुंवर नारायण, श्रीलाल शुक्ल, डॉ. धर्मवीर भारती आदि ऐसे अनेक शीर्षस्थ लेखकों और कवियों को पंडित जसराज के निकटस्थ माना जा सकता है। बहुत बार जसराज जी लखनऊ जाते तो कुंवर नारायण के यहां ठहरते थे। ‘हम गाते थे और ये साहित्यकार अपनी साहित्य-चर्चा करते थे। कुंवर नारायण जी की ‘छायानट’ नामक एक पत्रिका निकलती थी। बहुत श्रेष्ठ पत्रिका थी। इसमें केशवचन्द्र वर्मा ने हमारा एक बहुत बड़ा लम्बा-चौड़ा इंटरव्यू लिया। दो-तीन दिन तक वो हमसे गप्पें मारते रहे। केशव जी की बेटी हमारे शिष्य गिरीश से ब्याही है। धर्मवीर भारती भी हमसे बहुत प्रेम करते थे। अब वैसा जमघट्टा नहीं रहा। साहित्यकार आपस में तो सब बहुत मिलते-जलते होंगे, लेकिन हमारे साथ वैसा सम्पर्क नहीं रहा।
‘केशव जी तथा अन्य सभी साहित्यकारों के साथ इस विचार-विमर्श तथा वार्तालाप का प्रभाव पंडित जसराज पर यह पड़ा कि वह वास्तव में रचनाओं का चुनाव करते समय बहुत सोच-विचार करते थे। केशव जी और उनकी पत्नी एक-दूसरे से बहुत अधिक प्रेम करते थे। केशव जी की पत्नी का देहांत हो गया। बच्चे-बेटी सब हिल गए भीतर से कि बापू का क्या होगा। कभी एक-दूसरे से अलग नहीं हुए थे, कभी एक-दूसरे से झगड़ते नहीं थे। केशव जी पत्नी का क्रियाकर्म करके आए, ऊपर कमरे में गए और धाड़ से दरवाज़ा बंद कर लिया। भीतर जाकर केशव जी ने जसराज की का गाया कैसेट ऑटो-रिवाइंड पर लगा लिया- ‘जब से छवि देखी।’ चार-पांच घंटे बजता रहा, बजता रहा। फिर बाहर निकले, न उनके मन में कोई मलाल बचा था और न आंखों में आंसू।’
कुंवर नारायण जी के साथ जुड़ी हुई भी अनेक यादें हैं। डॉ. धर्मवीर भारती और पुष्पा भारती जी दोनों ही पंडित जसराज का गाना पसन्द करते थे। कुंअर नारायण कहते हैं कि स्वयं मेरे साथ पंडित जसराज उनके घर गए हैं और वहां बैठकर उन्होंने ‘कहा करूं बैकुंठ ही जाई। जहां नहीं नन्द, जहां नहीं जसोदा, जहां नहीं गोकुल ग्वाल और गाई। कहा करूं बैकुंठ ही जाई’ गाया और भारती जी भाव-विभोर होकर अश्रु बहा रहे थे। साहित्यकारों के प्रसंग में पंडित जसराज अशोक वाजपेयी के नाम का भी उल्लेख करते हैं।
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