Saturday 3 October 2020

उषाशी रथ ने पायलट बेटे को खोने का गम भुलाने के लिए काउंसिलिंग सेंटर खोलें, अपने स्टार्ट अप 'उत्कला' के जरिये कोरोना काल में बनीं कारीगरों का सहारा

उषाशी का संबंध एक ऐसे परिवार से हैं जहां अधिकांश लोग शिक्षक हैं। उन्होंने बचपन से अपने घर में पढ़ाई-लिखाई का माहौल देखा। वे 1986 में शादी के बाद अपने पति के साथ मुंबई आ गईं। वे घर में रहने के बजाय कुछ करना चाहती थीं। इसलिए मॉन्टेसरी ट्रेनिंग ली और एक प्री स्कूल में टीचर बन गईं। उसके बाद 2001 में नवी मुंबई क्षेत्र में खुद का प्री स्कूल शुरू किया जिसका नाम 'स्टेपिंग स्टोंस' रखा।

ये काम के प्रति उनकी लगन ही थी कि जल्दी ही इस स्कूल की दो ब्रांच खुली। वे स्कूल के बच्चों के साथ अपनी लाइफ को एंजॉय कर रहीं थी। 2009 में उन्हें नवी मुंबई में 'बेस्ट वुमन इंटरप्रेन्योर' के अवार्ड से सम्मानित किया गया। उसके बाद उषाशी की जिंदगी में वो दुखद पल भी आया जिसके बारे में खुद उसने कभी नहीं सोचा था। इसके आगे की कहानी जानिए उन्हीं की जुबानी :

स्टूडेंट्स की काउंसिलिंग करते हुए उषाशी रथ।

मैंने अपने जीवन में इतनी मेहनत की जिसके चलते ये कभी सोचा भी नहीं था कि एक ऐसा पल आएगा जब जिंदगी थम जाएगी। मेरे साथ ऐसा उस वक्त हुआ जब मेरा 21 साल का पायलट बेटा इस दुनिया में नहीं रहा। उस वक्त मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे लिए सबकुछ खत्म हो गया है। मैं डिप्रेशन में थी। उन्हीं दिनों मैंने अपने दोनों स्कूल बंद कर दिए। मुझे लग रहा था जैसे जीवन में चारों ओर बस अंधेरा ही है।

दिव्यांग विद्यार्थी की काउंसिलिंग करती उषाशी।

तभी मेरे पति की जॉब अबूधाबी में लगी और उनके साथ मैं भी वहीं शिफ्ट हो गई। मैं अपनी जिंदगी के खालीपन को स्कूली बच्चों के साथ रहकर भरना चाहती थी। इसी इरादे से मैंने अबूधाबी के एक इंडियन स्कूल में पढ़ाना शुरू किया। उन्हीं दिनों मैंने साइकोलॉजिकल काउंसिलिंग में डिप्लोमा किया और मुंबई आकर खुद का साइकोलॉजिकल काउंसिलिंग सेंटर खोला। इस सेंटर का नाम 'नोशन' रखा।फिर वहां से वापिस मुंबई आने के बाद यहां की प्रतिष्ठित संस्थान से करिअर काउंसिलिंग में डिप्लोमा कोर्सेस किए। इसी के आधार पर मैंने काउंसिलिंग से जुड़े अपने दूसरे प्रोजेक्ट 'अन्वेषा' की शुरुआत की। मैं भुवनेश्वर के एक ऐसे एनजीओ में भी काउंसिलिंग करती हूं जहां अधिकांश दिव्यांग विद्यार्थी हैं।

अपने स्टार्ट अप 'उत्कला' के जरिये कारीगरों को रोजगार दे रही हैं।

इसी बीच मैं अपने पति के साथ भुवनेश्वर शिफ्ट हो गईं। यहां रहते हुए कुछ ही समय में मुझे इस बात का अहसास हुआ कि भुवनेश्वर और इसके आसपास बसे क्षेत्र में जो ओडिशी कारीगर और बुनकर इस कला को निखारने का काम करते हैं, उनकी स्थिति दयनीय है। तभी मुझे ये लगा कि इनके लिए मुझे अपनी ओर से प्रयास करना चाहिए। मैं अपने पति के साथ ऐसे कई गांव में गई जहां ओडिशी कला के प्रति कुशल कारीगर पूरी तरह समर्पित हैं। उनकी खराब आर्थिक स्थिति को देखकर खुद उनके बच्चे इस क्षेत्र में आगे बढ़ना नहीं चाहते।

वे ओडिशी कला को दुनिया के हर कोने तक पहुंचाना चाहती हैं।

इन कारीगरों के काम को सारी दुनिया तक पहुंचाने के लिए मैंने अपनी ई कॉमर्स वेबसाइट की शुरुआत की जिसे 'उत्कला डॉट कॉम' नाम दिया। इस वेबसाइट पर आप ओडिशा के हर क्षेत्र के हैंडीक्राफ्ट और हैंडलूम प्रोडक्ट देख सकते हैं। मैं अपने बेटे के गम को भुलाने के लिए हर उस काम को करने में यकीन रखती हूं, जो कर सकती हूं। उत्कला भी मेरे ऐसे ही प्रयासों में से एक है।

वे बच्चों के बीच खुशियां बांटकर अपना गम भुलाना चाहती हैं।

ओडिशा की हैंडीक्राफ्ट इंडस्ट्री को आगे बढ़ाने के अलावा यहां की महिला कारीगरों की भलाई के लिए मैं कार्य कर रही हूं। लॉकडाउन के दौरान पुरी के शिल्पकारों की मदद के लिए भी मैं प्रयासरत हूं। मेरी जिंदगी अगर इन कारीगरों की मदद करने में किसी भी तरह से काम आ जाए तो ये मेरी खुशनसीबी होगी। मेरी संस्थाएं उत्कला और अन्वेषा मेरे लिए बच्चों की तरह ही है। अपने बेटे को खो देने के बाद मैं इन दोनों प्रोजेक्ट्स पर दिन-रात मेहनत करते हुए अपनी जिंदगी बिताना चाहती हूं।



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