1. लघुकथा :रिश्तों के मायने
लेखिका :ज्योत्स्ना शशि
बहू, मुन्ना कब से रोए जा रहा है, दूध क्यूं नही देतीं उसको?’ मिसेज़ शर्मा ने बहू से पूछा। ‘क्या करूं मां, मिल्क पाउडर का डिब्बा तो सुबह ही ख़त्म हो गया। समझ में नहीं आ रहा क्या करूं!’ बहू दीप्ति ने जवाब दिया। उधर उनका बेटा अनुज फोन पर अपने दोस्त से दूध का पैकेट भेजने की विनती कर रहा था।
आज एक हफ़्ता हो गया शर्माजी को अस्पताल से घर वापस आए और उसके बाद से घर का जो हाल देखा है तो ख़ुद को ही कोस रहे हैं कि उनकी वजह से घरवाले कितनी परेशानी उठा रहे हैं। बीस दिन पहले कोरोना रिपोर्ट पॉज़िटिव आने पर अस्पताल वाले आकर उन्हें ले गए थे।
बाक़ी घरवालों का भी टेस्ट हुआ पर सबकी रिपोर्ट नेगेटिव आई। बाद में शर्माजी की दो रिपोर्ट नेगेटिव आने के बाद उन्हें घर भेज दिया गया। पर उसके बाद से ही आस-पड़ोस वाले ऐसा बर्ताव कर रहे हैं जैसे शर्माजी के घर से ड्रग्स या हथियार बरामद हो गए हों। इसके पहले आस-पास के घरों में इतना मेलजोल था कि मोहल्ले में ख़ूब चहल-पहल रहती थी।
एक दूसरे के घर ख़ूब आना-जाना था। और जबसे मुन्ना हुआ था तबसे और भी रौनक़ लगी रहती थी। सभी का लाड़ला था वह। कभी ज़्यादा रोता तो सब पूछने लगते कि क्या हो गया, क्यूं रो रहा है। पर आज सुबह से कितना रोए जा रहा है, किसी ने खिड़की भी नहीं खोली। कंटेनमेंट में तो अब उनका घर नहीं है, लेकिन सब्ज़ीवाले, दूधवाले, यहां तक कि दवा दुकान वाले को भी कोई उनके घर नहीं आने दे रहा।
‘कोरोना क्या हो गया, पढ़े-लिखे लोग ज़ाहिलों जैसा बर्ताव करने लगे। महामारियां इसके पहले भी बहुत हुई हैं... चेचक, प्लेग, डेंगू, और वो ठीक भी हुई हैं। सबने हिम्मत से और मिल-जुलकर उनका सामना भी किया है, एक-दूसरे की मदद भी की है। पर कारोना ने लोगों को स्वार्थी बना दिया है। बुद्धि भ्रष्ट कर दी है।’ यही सब बड़बड़ाते हुए मिसेज़ शर्मा चहलक़दमी कर रही थीं कि तभी उनके फोन की घंटी बजी। ‘हैलो आंटी नमस्ते, कीर्ति बोल रही हूं, कैसे हैं आप सब, आज तो वट अमावस है ना, पूजा हो गई? आज मैंने आपकी दी हुई पिंक साड़ी पहनकर पूजा की तो आपकी याद आ गई!’ एक सांस में बोल गई वह।
कीर्ति पड़ोस वाले गुप्ताजी की बेटी है। चार महीने पहले ही शादी हुई है उसकी। कनाडा में रहती है। चार महीने पहले इस मोहल्ले में जो रौनक़ थी, उसे देख ये बताना मुश्किल था कि शादी किस घर में है। सहसा ही वो सब याद करके मिसेज़ शर्मा की रुलाई फूट पड़ी और उन्होंने कीर्ति को सारी आपबीती कह सुनाई। कीर्ति को तो जैसे झटका लगा।
‘अच्छा आंटी, बाद में कॉल करती हूं,’ कहकर उसने फोन काट दिया और अपनी मां को फोन मिलाकर एक सांस में बोलने लगी, ‘आप लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं! भूल गईं आप, कितने प्यार से शर्मा आंटी ने अपने हाथों से मेरी फेरों वाली साड़ी सजाई थी, और अनुज भैया कैसे दौड़-दौड़कर शादी में काम कर रहे थे। और वो बाज़ूवाले घोष अंकल, जब भी उनके मोबाइल में कुछ गड़बड़ होती है तो सीधे अनुज भैया के पास पहुंच जाते हैं।
आप लोग सबकुछ भूल गए? महामारी एक-दूसरे से फैलती है पर इसका मतलब ये नहीं कि हम स्वार्थी हो जाएं और किसी की मदद न करें। अपनी सुरक्षा का ख़्याल रखते हुए भी हम दूसरों की मदद कर सकते हैं और एक-दूसरे के सहारे इससे लड़ सकते हैं। और भगवान न करे, अगर कल को अपने घर में किसी को कोरोना हुआ और आपके साथ ऐसा बर्ताव हुआ तो कैसा लगेगा?’
बेटी की बातें सुनकर मिसेज़ गुप्ता का मन ग्लानि से भर गया। उन्होंने तुरंत फोन रखा, मास्क लगाया और सब्ज़ियां, दूध, ब्रेड आदि लेकर शर्मा जी के घर की ओर चल दीं। शर्मा जी के दरवाजे़ पर सामान रखकर और घंटी बजाकर वह जैसे ही घर लौटीं, मोबाइल पर मिसेज़ शर्मा का फोन आ रहा था। कोरोना और रिश्तों के बीच आख़िर जीत रिश्तों की ही हुई।
लघुकथा: बरसात
लेखिका :डॉ. अलका जैन
नन्हा रवि अपने घर की बालकनी में उदास बैठा हुआ था। बाहर बहुत तेज़ बारिश हो रही थी। मम्मी ने उसे इस तरह बैठा देखकर पूछा, ‘क्या हुआ बेटा? कितना अच्छा मौसम है और तुम इस तरह उदास क्यों बैठे हो?' रवि रुआंसा होकर बोला, ‘मम्मा! हर साल मैं दोस्तों के साथ बरसात में ख़ूब मस्ती करता था, हम काग़ज़ की नाव तैराते थे, फिर इन दिनों हम सब पिकनिक पर भी जाते थे। सब बंद हो गया है।
ये बरसात मुझे बिल्कुल भी अच्छी नहीं लग रही।’ मम्मी ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘बेटा! माना हम इस सुहाने मौसम में घूम-फिर नहीं पा रहे, तुम स्कूल नहीं जा पा रहे, ये भी माना कि बारिश का स्वागत करने का उत्साह मंद पड़ गया है पर देखो तो ज़रा, कितनी सुंदर है प्रकृति।
"बरसात की बूंदों का स्पर्श पाकर पेड़-पौधे मुस्करा उठे हैं। जो बरसात हमारे लिए मनोरंजन का एक साधन मात्र है, समूची सृष्टि के प्राण उस पर टिके हुए हैं। ये सिर्फ किसान ही नहीं, समस्त जीव-जगत के लिए बहुत आवश्यक है। माना कि आज कोरोना के संक्रमण के कारण हम घरों में रुकने को विवश हैं, लेकिन वह दिन भी आएगा जब हम बेफ़िक्र होकर बरसात का मज़ा ले सकेंगे।
लेकिन तब तक तुम्हें, हम सबको धैर्य रखना होगा। वैसा ही धैर्य जैसा धरती रखती है। ये सहती है सूर्य के प्रखर ताप को, जलती है, पर बिखरती नहीं क्योंकि वह मां है। उस पर उसकी असंख्य संतानों के प्राण निर्भर हैं और जब इस तपस्या के बाद मेघ उमड़-घुमड़कर बरसते हैं तो धरती ही नहीं सृष्टि का रोम-रोम पुलकित हो उठता है। इसलिए बेटा, इस बरसात का आनंद लो और थोड़ा धैर्य रखो।..
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"ये बरसात आज हमसे कह रही है कि एक दिन कोरोना ख़त्म होगा और हम सब फिर से मुस्कराएंगे। बारिश ही क्यों, हर मौसम का आनंद लेंगे।' मम्मी की बातें सुनकर रवि चहक उठा, ‘वाह! मेरी मम्मी तो बहुत अच्छी बातें करती हैं। मन की सारी उदासी ख़त्म कर दी है आपने मम्मा! अब मैं ख़ुश होकर बरसात का स्वागत करूंगा।’रवि और मम्मी की खिलखिलाहट बारिश की बूंदों जैसी ही प्यारी लग रही थी।
लघुकथा :स्वाभिमान
लेखक:हरीश कुमार ‘अमित’
गाड़ी चलाते हुए मेरा दिमाग़ लगातार सांय-सांय कर रहा था। सुबह से साहब के साथ ड्यूटी पर था। कभी एक मीटिंग के लिए किसी बिल्डिंग में और कभी किसी अन्य मीटिंग के लिए दूसरी बिल्डिंग में आने-जाने में ही पूरा दिन बीता था। अब रात के नौ बजने वाले थे और साहब को एयरपोर्ट छोड़ने जा रहा था।
मंत्री जी की बुलाई मीटिंग में काफ़ी वक़्त लग जाने के कारण साहब घर भी नहीं जा सके थे और उन्हें बैठक स्थल से सीधे एयरपोर्ट की ओर आना पड़ा था। उनकी अटैची भी मैं ही उनके घर से लेकर आया था जब वे मंत्री जी से चर्चा कर रहे थे।
सुबह से दस बार रुक्मिणी का फ़ोन आ चुका था कि घर आते वक़्त मैं साहब से कुछ एडवांस लेकर ही आऊं। दरअसल, उसकी बहन की शादी तय हो गई थी और पांच दिनों बाद ही शादी हो जानी थी। शगुन और दूसरे ख़र्चों के लिए दस हज़ार रुपयों की सख़्त ज़रूरत थी।
एयरपोर्ट नज़दीक आता जा रहा था। साहब एक हफ़्ते बाद वापस आएंगे। मैं असमंजस के झूले में झूल रहा था। आज तक किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया, तो क्या आज अपने उसूल तोड़ दूं? सोच-सोचकर सिर घूमने लगा था। माथे पर पसीना भी चुहचुहाने लगा था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं, क्या न करूं!
एयरपोर्ट अब सामने ही था। एकाध मिनट में साहब को उतरकर चले जाना था। मैं अब भी असमंजस के समंदर में गोते लगा रहा था। एयरपोर्ट के गमन क्षेत्र के सामने मैंने गाड़ी रोकी और बाहर आकर साहब के उतरने के लिए गाड़ी का दरवाज़ा खोल दिया। फिर डिक्की से साहब की अटैची निकालकर पास पड़ी एक ट्रॉली पर रख दी। साहब अब एयरपोर्ट के अंदर जाने के लिए तैयार थे।
चलने से पहले उन्होंने मेरी ओर देखा और पूछने लगे, ‘शामसिंह, किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं? सुबह से कुछ परेशान लग रहे हो।’ साहब के साथ पिछले चार सालों से ड्यूटी कर रहा था, इसलिए वे काफ़ी हद तक मुझे समझने लगे थे।
साहब की बात सुनकर एकबारगी तो मेरे दिल में आया कि उनसे एडवांस की बात कर लूं, पर तभी न जाने कैसे मेरे मुंह से निकल गया, ‘सब ठीक है साहब! नमस्कार!’ वे एयरपोर्ट के अंदर जा रहे थे तो मेरा बायां हाथ दाएं हाथ की उंगली में पहनी सोने की पतली-सी अंगूठी को सहलाने लगा। बस इसी अंगूठी को अब पार लगानी थी मेरी नैया!
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