लघुकथा# 1.मिठास
आज सुबह जब वेदिका के पिता मार्निंग वॉक से घर लौटे, तो कुछ उदास-से दिखाई दिए। हॉल में आकर सोफे पर बे-मन से बैठ गए।
वेदिका ने किचन में जाकर अपनी मां से कहा, ‘मां, आज पापा की चाय में एक चम्मच चीनी और मिला दो।’
‘क्यों? तुम्हारे पिता तो फीकी चाय पीते हैं न!’ मां ने थोड़ा हैरान होकर पूछा।
‘पापा का मूड आज कुछ ख़राब लग रहा है। चीनी की मिठास से शायद ठीक हो जाए।’ वेदिका ने जवाब दिया।
‘मूड ख़राब है! क्यों, क्या हुआ उन्हें अचानक?’ मां ने पूछा।
‘होना क्या है, आज फिर किसी की बेटी या पोती की शादी की ख़बर मिल गई होगी या फिर हो सकता है मेरी ही शादी का ज़िक्र किसी ने छेड़ दिया होगा इसलिए परेशान होंगे।’ वेदिका ने कहा।
‘परेशान होने वाली बात ही है, पिता हैं वो तुम्हारे। उन्हें तुम्हारी फ़िक्र नहीं होगी तो किसे होगी? वे भी चाहते हैं कि हमारे जीते जी तुम्हारी शादी हो जाए।’ मां ने कुछ चिंतित स्वर में कहा।
‘मां प्लीज़, अब आप शुरू मत हो जाइएगा। जल्दी से चाय लेकर हॉल में आ जाइए।’ इतना कह वेदिका किचन से बाहर चली गई। पीछे-पीछे मां भी चाय की ट्रे लेकर पहुंची।
पिता अब भी कहीं अपने ख़्यालों में गुम थे।
‘पापा, चाय लीजिए।’ वेदिका ने कहा।
उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वेदिका ने बात फिर से दोहराई तो पिता ने चाय का प्याला हाथों में ले लिया और एक चुस्की भरी।
‘चाय कैसी बनी है, पापा?’ वेदिका ने पूछा।
‘हम्म, ठीक है।’ संक्षिप्त-सा जवाब मिला।
‘लगता है चाय अब भी फीकी है। लाइए मैं और चीनी मिला लाती हूं।’ वेदिका ने कहा।
‘तुम्हें हो क्या गया है? पहले ही चाय में एक्स्ट्रा चीनी डलवा चुकी हो, अब और मिलाने की बात कर रही हो?’ मां ने वेदिका से कहा।
‘रोज़ सुबह की चाय पीकर पापा के चेहरे पर एक अलग-सी ख़ुशी नज़र आती है। जब मैं हैरान होकर पापा से पूछती कि ये फीकी चाय पीकर भी आपका मन इतना ख़ुश कैसे हो जाता है, तब पापा कहते हैं कि अगर मन में मिठास भरी हो, तो ये फीकी चाय भी दिल ख़ुश कर देती है। मगर लगता है आज पापा के मन की मिठास कुछ कम हो गई है। इसलिए मैंने सोचा कि पापा की चाय में एक्स्ट्रा चीनी मिलाकर मैं उनके मन को वापस मिठास से भर दूं।’ वेदिका ने कहा।
‘आप क्यों उदास हैं, किसी ने आपसे कुछ कहा है क्या?’ मां ने सवाल किया।
‘हां, वो वेदिका की शादी का ज़िक्र....’ पिता अपनी बात पूरी किए बिना ही चुप हो गए।
‘दिस इज़ नॉट फेयर पापा, अपनी सिखाई हुई बात आज आप ख़ुद ही भूल गए!’ वेदिका ने कुछ रूठे हुए अंदाज़ में कहा।
‘कौन-सी बात?’ मां ने पूछा।
‘जब मेरा एक्सीडेंट हुआ था तब मैं अपनी हालत देखकर और लोगों की बातें सुनकर बिल्कुल टूट चुकी थी। उस समय पापा ने मुझसे ये बात कही थी कि कभी-कभी हमारे हालात, मौजूदा वक़्त और आसपास मौजूद लोग हमारे सामने ऐसी परिस्थितियां खड़ी कर देते हैं, जिससे हम मायूस और ख़ुद को कमज़ोर समझने लगते हैं। तब ये तय करना हमारे हाथ में होता है कि हमें उन बुरी परिस्थितियों से हार मानकर, उदास होकर बैठ जाना है या ख़ुद अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाने की कोशिश करनी है और उसमें ख़ुशियों की मिठास घोलनी है।’ वेदिका ने पिता की ही सीख दुहराई।
पिता उसकी तरफ देखकर हल्का-सा मुस्करा दिए और बोले, ‘सॉरी बेटा, अपनी सिखाई हुई बात मैं ख़ुद ही भूल गया था। थैंक्यू मुझे याद दिलाने के लिए।’
‘माय प्लेज़र पापा।’ वेदिका ने मुस्करा कर कहा।
‘अच्छा मां, मुझे ऑफिस जाने के लिए देर हो रही है, मैं अब निकलती हूं।’ यह कह वेदिका अपनी बैसाखियों का सहारा लेकर खड़ी हो गई। फिर अपने पिता की ओर देखकर बोली, ‘पापा, शाम की चाय पर मिलते हैं... और हां मां, आज शाम की चाय फीकी भी चल जाएगी, क्योंकि अब पापा के मन में जो मिठास घुली है वो लंबे समय तक बरक़रार रहेगी। है न पापा!’
वेदिका की बात सुन वे दोनों हंस पड़े और वह उन्हें देखकर मुस्करा दी।
लघुकथा# 2.उस दिनके बाद
लगभग रोज़ ही सुबह 8-9 बजे के आसपास वह स्थानीय डाकघर पहुंच जाता। सुबह जल्दी जाने से भीड़ नही होती है तो डाक, पार्सल भेजने के काम आसानी से हो जाते हैं। वहां के सारे कर्मचारी उसे पहचानते हैं, ख़ूब अच्छी बातचीत के बीच काम हो जाता है। कई बार वे सब वहां चाय भी साथ-साथ पीते हैं। वह भी ख़ुश था वहां के काम से, वहां के लोग भी ख़ुश थे, सिवाय एक के।
सुबह वहां जब वह पहुंचता है, तो दरवाज़े के पास स्टूल पर बैठा लम्बा-चौड़ा, पहलवान-सा, नाइट ड्यूटी चौकीदार हीरू उसे मिलता है। उसे देखकर न जाने क्यों हीरू नाक-भौं सिकोड़ता, बदतमीज़ी से बात करता, ‘अरे ओ बाऊजी, हटाओ यहां से तुम्हारा ये, लिफ़ाफ़ों, काग़ज़ों का ताम-झाम, अभी बाहर बैठो, झाड़ू-,पोंछा लगाने वाले आएंगे, उनको काम करने दो। पीछे हटो, यहां मत खड़े रहो, वहां बैठो जाकर कुर्सी पर, इधर नहीं, उधर। सुबह-सुबह चले आते हैं। ठीक से ऑफिस खुलता भी नहीं, पहले ही आ जाते हैं, कोई काम भी नहीं करने देते...!’ इस तरह उसे देख नफ़रत से न जाने क्या-क्या बड़बड़ाता था, टोका-टोकी करता, आंखें दिखाता था हीरू।
उसका ग़ुस्सा देखकर उसे भी ताव तो बहुत आता था, लेकिन लड़ने से लाभ भी क्या था। ‘मैं तो अपनी डाक भेजने जाता हूं वहां। पता नहीं, उसे मुझसे क्या एलर्जी है, क्या लेना-देना है मुझसे? क्यों चिड़चिड़ाता है वो पगला मुझे देखकर?’ उसका तनाव बढ़ता जा रहा था। इस वजह से एक-दो बार वह डाकख़ाने विलम्ब से गया, हीरू की ड्यूटी ख़त्म होने के बाद, तो वहां भीड़ लगी पाई। कार्यरत बाबुओं ने विलम्ब से आने का कारण पूछा, तो उसने टाल दिया। थककर उसने वही पुराना सिलसिला चालू कर दिया, वह फिर सुबह जल्दी डाकख़ाने जाने लगा और हीरू की तीखी, नफ़रत-भरी निगाहों का शिकार होने लगा।
एक सुबह जब डाकख़ाने का इक्का-दुक्का स्टाफ़ आया था, तो उसने चाय मंगवाई और न जाने क्या सोचकर, उस ‘पहलवान’ हीरू को भी ऑफ़र कर दी। बस फिर क्या था, एकाएक पासा पलट गया। कमाल हो गया, सारा मंज़र ही बदल गया। ‘अरे अरे, साब, ये क्या साब? क्यों तकलीफ़ की आपने?’ अविश्वसनीय भाव से उसे देखते और बहुत ज़्यादा ख़ुश होते हुए हीरू ने हाथ जोड़े और चाय पीने लगा। चाय पीते हुए उसके चेहरे पर एहसानमंदी और पछतावे के मिले-जुले भाव थे।
उस दिन के बाद से सुबह जैसे ही वह डाकघर में घुसता है, हीरू ख़ुश होकर उसे सलाम करता है, हंसकर बात करता है, कुर्सी साफ़ करके इज़्ज़त से उसे वहां बिठाता है। कई बार तो ख़ुद चाय ले आता है। वह ख़ुश तो है ही, हैरान भी है। ‘ओह! तो ये बात थी। काश! ये पहल मैंने पहले की होती। काश, मैं उसकी इस प्रेम और सम्मान की भूख को पहले समझ पाता।’
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