कोरोना के कहर से जब दुनिया दहल गई है, तब जान हथेली पर रखकर कुछ बेटियां मरीजों की सेवा-सुश्रुषा में जुटी हैं। घर पर भी इन्हें परिजनों से पर्याप्त दूरी बनाए रखना पड़ती है। फिर चाहे इनके मासूम बच्चे ही क्यों न हो। इस दौरान स्वाभाविक मौत होने पर भी पड़ोसी व रिश्तेदार अंत्येष्टि में शामिल होने से छिटक रहे हैं।
एक ओर ममता तो दूसरी तरफ मानवता
ड्यूटी से घर लौटने पर भी इन्हें अलग-थलग रहना पड़ता है। वे चाहकर भी अपने कलेजे के टुकड़े को गले लगाना तो दूर, ढंग से दुलार भी नहीं कर पाती हैं। दरवाजे की आड़ से ही मासूमों का बचपन देखने को मजबूर हैं। नौकरीपेशा दंपत्तियों को तो कड़ा दिल कर बच्चों को पड़ोसियों या आया के पास छोड़ना पड़ रहा है। लिहाजा ये कर्मवीर एक साथ दो मोर्चों पर जूझ रही हैं। एक ओर ममता तो दूसरी तरफ मानवता है।
पड़ोसी संभाल रहे बच्चियां
अर्सेसे मैंने अपनी बच्चियों को गले नहीं लगाया। वे देखते ही रोने लगती हैं, मेरी आंखों में भी आंसू छलक आते हैं-भावना पट्टेया
अशोका गार्डन, इंद्रप्रस्थ कॉलोनी निवासी भावना पट्टेया हमीदिया अस्पताल में नर्स हैं। वे कोरोना मरीजों की सेवा में लगी हैं। उनके परिवार में पति और दो छोटी-छोटी बेटियां हैं। पति भी नौकरी करते हैं। इसलिए बेटियाें की देखभाल पड़ोस में रहने वाले बुजुर्ग दंपती करते हैं। दोनों बच्चियां उनके ही घर में रहती हैं। ड्यूटी से लौटने पर उन्हें परिजनों से दूरी बनाकर रखना पड़ती है। मेरी तीन शिफ्ट में ड्यूटी लगती है, घर जाते ही मैं अपने रूम में आइसोलेट हो जाती हूं। मजबूरी में मैं अपनी बच्चियों को दूर से ही देखकर खुश हो लेती हूं।
दूर से निहार लेती हूं
मनीषा का कहना हैं कि सामने होते हुए भी मैं बेटी को गोद में नहीं ले सकती। मैं आंसू के घूंट पी रही हूं-मनीषा बरबेटे
सेमरा निवासी मनीषा बरबेटे सुल्तानिया अस्पताल में नर्स हैं। उनके पति दिल्ली में जॉब करते हैं और लॉकडाउन के चलते वहीं फंसे हैं। मनीषा ने बताया कि उनकी एक साल की बेटी है, जिसे घर में एक बुजुर्ग आया संभालती हैं। मनीषा तीन शिफ्ट में काम करती हैंै। उसके बाद वे घर आकर सीधे आइसोलेट हो जाती हैं। वे अपनी बेटी को दूर से ही निहारकर खुश हो जाती हैं। सुरक्षा के मद्देनजर उनकी बेटी को बॉटल से दूध पिलाया जा रहा है।
बेटी से बात नहीं कर पाती
मैं अपने घर पर अपनी बेटी और परिवार से भी नहीं मिल पाती हूं। सुरक्षा के लिए दूरी बहुत जरूरी है-बिट्टू शर्मा
बिट्टू शर्मा सीएसपी कोतवाली हैं। वे दिन-रात ड्यूटी में जुटी रहती हैं। साथ ही अपनी टीम की हौसला अफजाई भी करती हैं। उनकी तकलीफ यह है कि घर पहुंचकर भी उन्हें परिजनों और बेटी से दूर रहना पड़ता है। चेकिंग के दौरान सभी तरह के लोगों से सामना होता है। संक्रमण के चलते जब मैं अपने परिवार से दूर रह रही हूं, तो लोगों को अपने घर में रहने में क्या परेशानी है? संक्रमण से बचाव का सबसे कारगर तरीका सोशल डिस्टेंसिंग है। लॉकडाउन में कई लोग बेवजह बाहर घूमने निकल पड़ते हैं। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।
बेटी को गले न लगा पाने का मलाल
जनसेवा के साथ परिवार की सुरक्षा भी जरूरी है। इसलिए कुछ दिन की परेशानी उठा लेंगे-डॉ. पूर्वा
कोरोना से जंग लड़ने वाले योद्धा डॉ. आशीष गोहिया और उनकी पत्नी डॉ. पूर्वा हमीदिया अस्पताल में पदस्थ हैं। ड्यूटी के दौरान ये कई मरीजों के संपर्क में आते हैं। सुरक्षा के लिहाज से ये डॉक्टर दंपत्ति अपने परिवार से भी नहीं मिल पाते हैं। वे अपनी 12 वर्षीय बेटी रिद्धिमा को गले तक नहीं लगा पाते हैं। बच्ची का ज्यादातर वक्त पढ़ाई में ही बीतता है। उसे जब भी मम्मी-पापा की याद आती है तो वह दूर से उन्हें निहारती है। डॉ. पूर्वा की तकलीफ यह है कि वह चाहकर भी बेटी के करीब नहीं जा पाती हैं।
दूर रहना मुश्किल
अवधपुरी निवासी शोभा नरवरे सुल्तानिया अस्पताल में नर्स हैं। शोभा का दर्द यह है कि वह पिछले एक माह से 4 वर्ष के बेटे से मिलना तो दूर, उससे बात तक नहीं कर पाईं। मैं जब भी ड्यूटी पर जाती हूं तो वह मेरी सासू मां को छोड़कर साथ जाने की जिद करने लगता है। जब मैं घर आती हूं तो टीवी की आवाज तेज कर बेटे के हाथ में मोबाइल थमा देते हैं, ताकि उसका ध्यान मेरी तरफ न जाए। कई बार मेरी आवाज सुनते ही वह दौड़ पड़ता है। ऐसे में मुझे दूर भागना होता है। फिर भी संतोष इस बात का है कि मेरा परिवार मेरे साथ है।
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