लाइफस्टाइल डेस्क. दिवाली में हर साल घर रोशन होते हैं लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों की जिंदगी को जगमग कर रहे हैं। ये मुफ्त खाना बांटने के साथ बच्चों की जिंदगी में शिक्षा का उजियारा फैला रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो दशकों से मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं दे रहें हैं और अनाथ बच्चों को अपना रहे है। दिवाली पर जानिए ऐसे5लोगोंके बारे में, जो दूसरों की जिंदगी में किसी सूरजसे कम नहीं हैं....
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- अगर मां शिक्षित है तो बच्चों के जीवन में उजियारा आसानी से फैलाया जा सकता है, इसी सोच के साथ दिल्ली के अंकित अरोड़ा ने 2017 में सारथी नाम की पहल की शुरुआत की। यह संगठन लो-इनकम परिवारों की महिलाओं को शिक्षित करने के साथ उन्हें बच्चों का भविष्य बेहतर बनाने की ट्रेनिंग देता है।
- अंकित ने इसकी शुरुआत अपने दोस्तों के साथ मिलकर फरीदाबाद, हरियाणा के स्लम एरिया से की। पहल में ऐसे बच्चों को शामिल किया गया, जो रेलवे स्टेशन पर नौकरी करते थे। अंकित के मुताबिक, एक शोध में सामने आया कि बच्चों के बेहतर भविष्य का सीधा कनेक्शन माता-पिता से होता है। इसलिए बच्चों की शिक्षा का स्तर बढ़ाने के लिए पेरेंट्स को शामिल करने का आइडिया आया।
- शिक्षा के क्षेत्र में अंकित 2012 में जुड़े थे। स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने की शुरुआत की। शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही कई संस्थाओं के साथ काम करने के बाद इंजीनियरिंग की जॉब छोड़कर अपनी संस्था बनाई।
- संगठन मांओं को शिक्षित करने के साथ बच्चों की स्किल बढ़ाने के तरीके भी सिखाता है। इसके लिए उन्हें किट दी जाती है जिसे एक्सपर्ट ने तैयार किया है। बच्चों को कैसे खेल-खेल में शिक्षित करना है टीम इसकी जानकारी मांओं समय-समय पर देने के लिए रिलेशनशिप मैनेजर नियुक्त की गई हैं। जो उनमें से ही किसी एक महिला को बनाया जाता है।
- स्लम एरिया की ही एक महिला को शिक्षित करके रिलेशनिशप मैनेजर नियुक्त किया जाता है जो दूसरी महिलाओं को नई एक्टिविटी सिखाती हैं। वह अपने क्षेत्र की हर मां से रोजाना मिलती है और रोज की एक्टिविटी पर नजर रखती है।
- संगठन ने मोबाइल ऐप भी लॉन्च की है, जहां से मांओं को काफी कुछ सीखने को मिलता है। पेरेंट्स के मोबाइल पर वॉटसऐप और यूट्यूब के जरिए वीडियो भेजे जाते हैं।
- संस्था आंगनवाड़ी और स्कूल के 3-8 साल की उम्र के बच्चों को चुनती है और उनके पेरेंट्स को बुलाती है। पेरेंट्स में से ही कोई एक महिला को रिलेशनशिप मैनेजर नियुक्त किया जाता है। उसे एक हफ्ते ट्रेनिंग देने के बाद किट दी जाती है जो दूसरे पेरेंट्स में बांटने का काम करती है।
- अंकित के मुताबिक, इस मॉडल को अप्लाईकरने के बाद बच्चों की स्किल में काफी बदलाव देखने को मिला। 4 महीने में प्रोग्राम में बच्चों में 27.1 फीसदी तक साक्षरता दर बढ़ी। वह कितना समय पा रहे हैं इसके लिए समय-समय पर टेस्ट कराए जाते हैं। बच्चों का यह तरीका काफी पसंद आ रहा है।
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- पद्मश्री डॉ. बी रमन्ना रॉव बीमार लोगों के लिए आशा की किरण हैं। वह पिछले 46 सालों में 20 लाख लोगों को मुफ्त इलाज कर चुके हैं। बेंगलुरु के डॉ. राव हर रविवार अपने घर पर 1200 लोगों का मुफ्त इलाज करते हैं। वह 700 टॉयलेट बनवा चुके हैं और 35000 से अधिक पौधरोपण करा चुके हैं।
- दूर-दराज इलाके में रहने वाले लोगों के लिए बेहतर स्वस्थ्य सेवाएं किसी लग्जरी चीजों से कम नहीं है। 68 वर्षीय डॉ. रॉव के मुताबिक, ज्यादातर आबादी में छोटी-छोटी बीमारियां सबसे कॉमन हैं। मैं ऐसे मामलों को कम करना चाहता था। जिनका समय पर इलाज न होने पर बड़ी और गंभीर बन जाती हैं।
- डॉ राव की क्लीनिक कर्नाटक में है। यह बेंगलुरु-तुमकुर हाइवे के साथ स्थित टी-बेगुर गांव में हैं। यह दुनिया की सबसे पुरानी मुफ्त इलाज करने वाली क्लीनिक है। बेसिक ट्रीटमेंट के अलावा क्लीनिक में जांच भी की जाती हैं। इनमें ब्लड प्रेशर, ब्लड शुगर चेकअप, ब्लड टेस्ट, ईसीजी, नेबुलाइजेशन शामिल है।
- क्लीनिक में नर्सिंग, कम्पाउंडर, लैब टेक्नीशियन और असिस्टेंट को मिलाकर कुल 35 लोगों का स्टाफ है। हर माह क्लीनिक में रोटरी आई हॉस्पिटल के डॉक्टर आईचेकअप कैंप लगाते हैं। इस दौरान फ्री सर्जरी और आंखों की जांच भी की जाती है। क्लीनिक में इलाज के लिए डेंटल एक्सपर्ट भी मौजूद रहते हैं।
- डॉ. राव ने क्लीनिक की शुरुआत ग्रेजुएशन पास होने के दूसरे दिन 15 अगस्त, 1973 को की थी। उनका एकमात्र लक्ष्य गरीब तबके के लोगों को सेवाएं देना था। परिवार ने क्लीनिक बनाने के लिए टी-बैगुर गांव में कुछ जमीन खरीदी।
- हफ्तेभर डॉ. राव बेगलुरू के हॉस्पिटल्स में सेवाएं देते हैं और रविवार को गांव पहुंचकर मरीजों का इलाज करते हैं। मरीजों को धूप और बारिश में परेशान न होना पड़े इसके लिए क्लीनिक के एक किमी दायरेमें शेड लगवाए गए हैं। इलाज के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे मरीजों को योग सिखाया जाता है, जिसके लिए ट्रेनर नियुक्त किए गए हैं।
- क्लीनिक में आने वाला कोई भी मरीज खाली पेट वापस नहीं जाता, उनके लिए चावल और सांभर की व्यवस्था की जाती है। 1991 में गांव में एक भी शौचालय नहीं था। वर्तमान में 700 टॉयलेट हैं। गांव के 50 स्कलों की देखभाल का जिम्मा भी इनके पास है।
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- देब कुमार मलिक कोलकाता की सड़कों पर रोजाना 300 बुजुर्गों को मुफ्त खाना खिलाते हैं। इनमें ज्यादातर बुजुर्ग ऐसे हैं जिनके लिए सड़क का किनारा ही घर है। सिर्फ खाना ही नहीं, मेडिकल इमरजेंसी में भी बस एक कॉल पर देब मदद के लिए पहुंच जाते हैं।
- 2015 में एक वाकयेके बाद देब में बुजुर्गों को खाना खिलाने की शुरुआत की। उस दिन एक बुजुर्ग देब के घर पहुंचा और अपनी पत्नी के लिए खाना मांगा। दंपतीको उनके बेटे ने खाना देने से इनकार कर दिया था, इस घटना के बाद देब ने ऐसे ही बुजुर्गों की मदद करने की ठानी।
- देब ने सोशल मीडिया पर लोगों से ऐसे जरूरतमंदों की जानकारी मांगी। देब के मुताबिक, 2015 से अब एक भी दिन ऐसा नहीं गया, जब उन्होंने खाना न पहुंचाया हो। देब के साथ 64 युवाओं का एक ग्रुप भी जुड़ा जो उनकी इस पहल में हाथ बंटा रहा है।
- 40 वर्षीय देब बचपन में आर्थिक तंगी से जूझे। जब वह 5 साल के थे तब पिता का एक्सीडेंट हुआ और घर चलाने का जिम्मा मां पर आ गया। मां पार्टटाइम फिजियोथैरेपी ट्रेनर थीं, जिन्होंने घर चलाने के लिए टीचिंग शुरू की। भाई मानसिक रूप से बीमार थे जिसमें जिनका इलाज मेंटल हेल्थ सेंटर में चल रहा था।
- कोलकाता के बारानगर में पल-बढ़े देब के मुताबिक, पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने वेटर की जॉब शुरू की। पार्टी के बाद वह बचा हुआ खाना अपने घर ले जाते थे। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने गुजरात में बिजनेस मॉडल के बारे में सुना और सूरत पहुंचे। यहां कई दिन भटकने के बाद एम्ब्रॉइड्री की फैक्ट्री में काम शुरू किया। कुछ समय यहां बिताने के बाद उन्होंने जयराम गारमेंट के नाम से फैक्ट्री लगाई और बिजनैस बने।
- देब रोजाना घर के 20 किलोमीटर के दायरे में मौजूद बुजुर्गों तक अपनी टीम की मदद से खाना पहुंचाते हैं। उनकी ख्वाहिश की यह दायरा बढ़े और ज्यादा से ज्यादा जरूरतमंदों तक मदद पहुंचे।
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- सिंधुताई को अनाथ बच्चों की मां और महाराष्ट्र की मदर टेरेसा भी कहते हैं। इनका का जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में 14 नवंबर, 1948 को एक गरीब परिवार में हुआ था। बचपन में समाज इन्हें चिंदी के नाम से बुलाता था जिसका मतलब है- फटा हुआ कपड़ा। पिता चाहते थे बेटी पढ़े, लेकिन मां इसके खिलाफ थीं। 10 साल की उम्र में 30 साल के चरवाहे श्रीहिर सपकाल के साथ शादी कर दी गई।
- सिंधुताई ने गांव के ही एक शख्स के खिलाफ आंदोलन चलाया। वह इंसान ग्रामीणों से गोबर इकट्ठा कराता था और गांवों के लोगों को पैसे न देकर वन विभाग को बेच डालता था। इस आंदोलन में लड़ाई के दौरान सिंधुताई ने जिला कलेक्टर को गांव में बुलाया। कलेक्टर ने आदेश पारित किया और इस घोटाले को रोकने के लिए सख्त कदम उठाए जाएं। इस घटना के बाद वह शख्स बौखलाया और सिंधुताई के पति को धमकाया कि वह सिंधु को घर से निकाल दे। उस वक्त सिंधु 9 महीने की गर्भवती थीं। उन्हें घर से निकाल दिया गया और सिंधुताई ने एक पशुओं के तबेले में बेटी को जन्म दिया।
- रोजी-रोटी जुटाने के लिए सिंधुताई ट्रेनों में गाना गाने लगीं। इस दौरान वह ऐसे बच्चों के संपर्क में आईं जिनके मां-बाप ने उन्हें छोड़ दिया था। यहीं से उन्होंने ऐसे बच्चों को पालने का जिम्मा उठाया। बच्चों के साथ भेदभाव न हो इसलिए उन्होंने अपनी बेटी को पुणे के एक ट्रस्ट में भेज दिया और आर्थिक मदद मांगने के लिए गांवों और शहरों की यात्रा शुरु की। हालांकि इतनी बड़ी संख्या में बच्चों और महिलाओं को भोजन उपलब्ध कराने का संघर्ष जारी रहा।
- बेटी ने पढ़ाई पूरी होने के बाद आश्रम चिकलदारा में आश्रम खुलावाया और सिंधुताई की सोच को आगे बढ़ाया। वर्तमान में उनके आश्रम में 1200 से अधिक अनाथ बच्चे हैं। आश्रम में अनाथ शब्द पर पाबंदी और बच्चे बच्चे सिंधुताई को माई के नाम से पुकारते हैं। इन आश्रमों में रहने वाले बच्चों के पालन-पोषण व शिक्षा-चिकित्सा का भार सिंधुताई के कंधों पर है।
- 2010 में उनके जीवन पर एक मराठी फिल्म 'मी सिंधुताई सपकाल' बनाई गई। फिल्म 54वें लंदन फिल्म फेस्टिवल में विश्व प्रीमियर के लिए भी चुना गया था। सिंधुताई को लंदन, 2014 में आयोजित राष्ट्रीय शांति संगोष्ठी में शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका गया है।
- सिंधुताई को 500 से अधिक सम्मानों से नवाजा जा चुका है। उनके नाम से 6 संस्थाएं चल रही हैं जो बच्चों को आश्रय देने का काम कर रही हैं। आश्रम में सिंधुताई का परिवार काफी बड़ा है। रेलवे स्टेशन पर मिला पहला बच्चा आज उनका सबसे बड़ा बेटा है। वह उनके बाल निकेतन, महिला आश्रम, छात्रावास और वृद्धाश्रम का मैनेजमेंट देखता है। सिंधुताई 272 बेटियों की धूमधाम से शादी कर चुकी हैं और उनके परिवार में 36 बहुएं भी आ चुकी हैं।
- बच्चों को पालने के लिए सिंधुताई आज भी किसी के सामने हाथ फैलाने से नहीं चूकतीं। उनका कहना है कि अगर किसी से मांगकर बच्चों की परवरिश की जा सकती है तो इसमें क्या हर्ज है। तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उनहें आईकॉनिक मदर के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित भी कर चुके हैं। 2017 में उन्हें राष्ट्रपति ने नारी शक्ति पुरस्कार से नवाजा।
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- जानवरों तक समय से ब्लड पहुंचाकर उनकी जान बचाने का जिम्मा हैदराबाद के शिव कुमार वर्मा उठा रहे हैं। शिव पेशे से इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हैं अपने एनजीओ की मदद से देशभर के जानवरों के लिए निशुल्क मदद कर करे हैं।
- इसकी शुरुआत एक घटना से हुई थी। सड़क दुर्घटना में एक कुत्ता गंभीर रूप से घायल हो गया था। जब उसे अस्पताल ले जाया गया तो ऑपरेशन सफल रहा लेकिन खून अधिक बहने के कारण दो दिन बाद उसकी मौत हो गई। ऐसा दूसरे जानवरों के साथ न हो इसलिए ब्लड डोनर डाटाबेस तैयार किया।
- आधिकारिक तौर पर शिव ने वर्ल्ड ब्लड डोनर डे के मौके पर 14 जून, 2019 को एनिमल ब्लड लाइन वेबसाइट की शुरुआत की। यहां कुत्ते और बिल्लियों के लिए पालतू ब्लड डोनर रजिस्टर्ड किए गए हैं। जरूरत पड़ने पर वेबसाइट से संपर्क करने पर पालतू के ब्लड ग्रुप के मुताबिक रक्त लिया जा सकता है।
- शिव के मुताबिक, डोनर और जरूरतमंद पालतू के बीच वेबसाइट एक ब्रिज की तरह काम करती है। 99 फीसदी लोगों को उनके पालतू जानवर का ब्लड ग्रुप नहीं मालूम होता। मुंबई, दिल्ली और चेन्नई जैसे महानगरों में भी यही स्थिति देखने को मिलती है।
- बिल्ली के रक्त में तीन और कुत्तों में 7 तरह के ब्लड ग्रुप पाए जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा लोग अपने पालतू का ब्लड ग्रुप को जानें और वेबसाइट पर रजिस्टर करें, इसके लिए भी जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है।
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