खिड़की से देखते हुए लग रहा था मानो पेड़ बेतहाशा दौड़े जा रहे हैं, मगर मंज़िल कहां है, पता नहीं। मेरी ज़िंदगी भी कुछ ऐसी ही है, एक दौड़ है जिसमें मैं भागे जा रहा हूं। भागना कितना आसान है न! जब कुछ समझ नहीं आए तो भाग जाओ। पर तब कहां जाए इंसान, जब ख़ुद से भागना ही ज़रूरी हो। पिछले पांच सालों में ये मेरा तीसरा ट्रांसफ़र है। बस भाग रही है ज़िंदगी और भाग रहा हूं मैं- ख़ुद से, अपनी उन यादों से।
सोचते-सोचते तृष्णा का चेहरा दिमाग़ में आया और एक बार फिर से मैंने आंखें बंद कर लीं। ‘सर, ओ सर, आपका स्टॉपेज आ गया। सो गए क्या?’ कंडक्टर ने झकझोरा तो मैं अपने ख़्यालों से बाहर आया। अपना सामान उतारकर मैं अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा। आजकल मुझे ये नए शहर अजनबी-से नहीं लगते, क्योंकि मैंने अपनों को अजनबी होते देखा है।
‘अच्छा, तो तुम हो शिवम?’ मेरी मकान मालकिन ने ऊपर की मंज़िल की चाबी मुझे थमाते हुए कहा। ‘लंबी दूरी से आए हो, थक गए होगे। चाय पीकर जाओ।’ उन्होंने कहा।
‘नहीं, धन्यवाद।’ और मैं अपनी औपचारिकता वाली मुस्कान देकर चला आया। कितनी अजीब है ये दुनिया, यहां मुखौटे लगाकर घूमना ही पड़ता है, नक़ली हंसी, नक़ली चेहरा और नक़ली प्यार। एक बार न चाहते हुए तृष्णा फिर से याद आ गई। नए घर को सहेजने में शाम हो गई। जब भूख का एहसास हुआ तो नीचे चला गया। सोचा कि आसपास दुकान होगी ही। नीचे कुछ ही दूरी पर एक किराने की दुकान थी, एक लड़की दुकानदार से बहस कर रही थी।
‘अरे भैया, ये तो अच्छी लूट है! इस पर एमआरपी 50 रुपए लिखा है और आंटी जी से आप 60 रुपए ले रहे हो!’ वह बोल रही थी।
‘फ्रिज में रखा है, ठंडा भी तो है। उसके भी तो पैसे लगेंगे।’ दुकानदार ने कहा तो वह बोली, ‘अच्छा अंकल, ये कब से हो गया? ठंडा करने के भी चार्ज करने लगे? अभी बताती हूं, कंज़्यूमर कोर्ट वाले पहचान वाले हैं मेरे, उन्हें फोन लगाती हूं।’
‘अच्छा बिटिया, रहने दो। लो बहन जी आप 50 में ही लो।’ दुकानदार की यह बात सुनकर वो ऐसे मुस्कुराई मानो कोई जंग जीत ली हो उसने। ‘क्या चाहिए?’ दुकानदार ने मेरी तरफ़ देखते हुए पूछा।
‘एक नूडल्स का पैकेट दे दो,’ मैंने कहा तो वह लड़की मेरी तरफ़ देखकर बोली, ‘सुनो, इन्हें एमआरपी देखकर ही देना। पता नहीं ये न कह दें कि दुकान में रखा है तो उसका भी चार्ज लगाएंगे।’ ये कहकर वो मुस्कराती हुई चली गई। अगले दिन में पार्क में टहल रहा था कि किसी ने पीछे से कंधे पर थपथपाया। ये तो वही लड़की थी। ‘तो एमआरपी पर लिया कि ज़्यादा पैसे दिए?’ उसने पूछा।
लोगों से मैं तब ही बात करता हूं, जब मुझे ज़रूरत लगे। एक दूरी बनाना पसंद है मुझे, या यूं कहूं कि मुझे ये रिश्ते नापसंद हैं। ‘एमआरपी पर,’ ये कहकर मैंने अपने क़दम तेज़ कर लिए ताकि उसे पीछे छोड़ सकूं। रविवार का दिन था, सुबह-सुबह हल्की बारिश थी। कॉफ़ी का मग लिए मैं खिड़की पर बैठ गया।
बाहर देखा तो फिर से वही लड़की दिखी। बच्चों के साथ पानी की नाव बनाकर खिलखिला रही थी। न जाने क्यों रश्क़-सा हो गया मुझे। कुछ लोग कितने ख़ुशनसीब होते हैं न, जिनकी ज़िंदगी में कोई दुख नहीं होता। मैं भी क्यों उस जैसा नहीं हूं जो पानी में काग़ज़ की नाव चलाकर भी ख़ुश हो ले।
बारिश मुझे भी कितनी पसंद थी और तृष्णा को भी... वह फिर से याद आ गई। न जाने क्यों कॉफ़ी का स्वाद कसैला हो गया और मैं वहां से हट गया। अगले दिन मेरे नए ऑफिस का पहला दिन था। मैं अपनी सीट पर आकर बैठा ही था कि मेरे सामने वाली सीट पर बैठी वो मुस्करा रही थी।
‘सो, इंट्स योर फर्स्ट डे! बाय द वे, आई एम अनाहिता। लगता है तुम पीछा कर रहे हो मेरा। पहले मेरी ही सोसाइटी में, फिर गार्डन में और अब सेम ऑफिस... कल खिड़की से मुझे ही देख रहे थे।’ उसने मुस्कुराकर कहा।
‘न... नहीं तो।’ मैंने अचकचाते हुए कहा तो वह हंस पड़ी। ‘किडिंग यार, रिलैक्स,’ उसने कहा और चली गई।
लंच टाइम में भी वह मेरे पास आकर खड़ी हो गई। उसका बार-बार आना मुझे पसंद नहीं आ रहा था, अपने अकेलेपन में ख़लल मुझे पसंद नहीं। वह कुछ बोल रही थी और मैं टेबल से उठ खड़ा हुआ। मैं जानता था कि जो मैं कर रहा हूं वो सही नहीं, न ही सभ्यता है, पर ऐसा ही हूं मैं।
अगले दिन वह पार्क में दिखी, मुस्कराई भी मगर मेरे चेहरे पर सन्नाटा ही पसरा रहा। जब भी वह मुझे अपनी सोसाइटी में या पार्क के आसपास दिखती, लोगों से घुलती-मिलती ही दिखती। बच्चे तो उसके आगे-पीछे घूमते थे। ऑफिस में भी सबकी चहेती थी अनाहिता।
तृष्णा... वह भी तो ऐसी ही थी, हंसमुख और सबकी चहेती। सब कहते थे कि मैं बहुत क़िस्मतवाला हूं। क़िस्मतवाला...!! ‘तृष्णा’- ये नाम मेरा सुख-चैन सब ले गया। मेरा सिर घूमने लगा मानो सब कुछ तहस-नहस हो जाएगा। मैंने अपना सिर टेबल पर रख दिया। ‘शिवम, आर यू ऑल राइट?’ पास बैठे कलीग ने पूछा तो मैंने कहा कि बस माइग्रेन की वजह से है।
अनाहिता ने शायद सुन लिया था, एक गोली और पानी की बोतल पकड़ाते हुए कहने लगी, ‘ले लो, आराम मिलेगा। और हां, जितना सोचोगे, दर्द उतना ही बढ़ेगा।’ मैंने उसकी आंखों में झांका। पहली बार उन आंखों में दर्द की वही लकीर दिखी, जिसे वह न जाने कब से जी रही है। ये दर्द मुझे पहचाना-सा लगा।
‘तृष्णा, ये क्या कह रही हो तुम, मैं प्यार करता हूं तुमसे। तुम जानती हो कि मैं नहीं रह पाऊंगा तुम्हारे बिना, मैं मर जाऊंगा तृष्णा।’ मैं गिड़गिड़ाया था उसके सामने।
‘प्लीज़ शिवम, डोंट डू दिस, नथिंग इज़ वर्किंग। हम दोनों अलग हैं, ज़िंदगी से मेरी चाहतें अलग हैं और तुम्हारी अलग। मैं अब इस रिलेशनशिप को और आगे नहीं ले जाना चाहती। मैं और समीर एक-दूसरे के साथ ख़ुश हैं। ट्राई टु अंडरस्टैंड।’
समीर मेरा बॉस, तृष्णा मेरा प्यार। सब कुछ अच्छा था मेरी ज़िंदगी में। फिर न जाने कब ये हो गया।
तृष्णा चली गई। पांच सालों का वह साथ, जीने-मरने की क़समें, वफ़ाओं की वो बातें, सब झूठ था। आज जब उसे मुझसे बेहतर, उसकी हर इच्छा को पूरा करने वाला मिल गया, वह चली गई मुझे छोड़कर, मेरे प्यार को दुत्कार कर। कुछ टूट गया, कुछ चटक गया है मेरे अंदर। और तब से आज तक मैं भाग रहा हूं।
बादल घिर आए थे। बारिश हो रही थी और शाम भी हो गई। सब ऑफिस से आज पहले ही निकल गए थे। बाहर अनाहिता दिख गई। वह थोड़ी परेशान लग रही थी। मैंने उसे अनदेखा करते हुए अपनी बाइक आगे बढ़ा ली, मगर कुछ सोचकर वापस आ गया।
‘क्या हुआ?’ मैंने पूछा। ‘आई विल मैनेज, तुम जाओ। घर जा रहे थे न?’ उसने अनमने ढंग से कहा।
‘बताओ? सॉरी, मैं थोड़ा अपनी धुन में था।’ शायद उसने मुझे जाते देख लिया था। मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। ‘वो कैब नहीं आ रही और रात भी होने को है।’ अनाहिता ने कहा।
‘चलो, बैठो, मैं छोड़ देता हूं।’ मैंने कहा। ‘आर यू श्योर?’ उसके चेहरे पर वही पुरानी मुस्कान थी और वह बाइक पर बैठ गई।
कुछ तो अलग था इस लड़की में। जितना हंसती है उतना ही गहरा दर्द है उसकी आंखों में। ये दर्द जो सहन करता है, जो महसूस करता है, वही समझ सकता है। हर मुस्कराहट के पीछे ख़ुशी ही हो ये ज़रूरी तो नहीं। कल रात काफ़ी बारिश हुई थी, इसीलिए सुबह मौसम बहुत सुहावना था। मैं पार्क में टहलने के लिए निकल गया।
मैं राउंड लगा ही रहा था कि अचानक से मुझे अनाहिता के चिल्लाने की आवाज़ आई। शायद फिसल गई थी। मैंने उसे सहारा दिया और हॉस्पिटल लेकर पहुंचा। ‘देखिए फ्रैक्चर हुआ है, प्लास्टर चढ़वाना है और चलना-फिरना बिल्कुल बंद। सुनिए मिस्टर, अपनी वाइफ़ का ख़्याल रखिएगा, इन्हें थोड़े दिन कंप्लीट रेस्ट करना है।’ डॉक्टर ने दवाई की पर्ची पकड़ाते हुए कहा।
‘शी इज़ नॉट माय वाइफ़!’ ‘ही इज़ नॉट माय हस्बैंड’
हम दोनों साथ में ही बोले, डॉक्टर मुस्करा दिया। अनाहिता कराह रही थी, मैंने उससे पूछा, ‘सुनो, तुम्हारे घर पर फोन कर देता हूं, तुम्हारी देखभाल के लिए कोई आ जाएगा।’
‘मैं अनाथ हूं, मेरा कोई नहीं है। जिसने जन्म दिया, उसने बचपन में ही कूड़े के ढेर पर फेंक दिया। अनाथालय में बड़ी हुई। और जब बड़ी हुई तो इस जिस्म के लिए गिद्धों ने मुझे नोचने की क़वायद शुरू कर दी। किसी तरह से उनके चंगुल से भाग निकली और तब से आज तक भाग ही रही हूं, एक जगह से दूसरी जगह, जैसे तुम...!! भाग रहे हो न?’
अनाहिता ने मेरी नज़रों में झांकते हुए कहा। मेरा दिल धक् से रह गया, ये लड़की जो पूरा दिन पटर-पटर करती है, जिसकी बातें लोगों को हंसाती रहती हैं, अपने अंदर इतना गहरा घाव लेकर घूम रही है! मुझे आज अपना दर्द छोटा लग रहा था।
मैं अनाहिता को घर ले आया। उसकी दवाइयां सिरहाने रखीं और उससे पूछा, ‘सुनो, तुम्हें भूख लगी है?’ ‘हां, मैं नूडल्स खाऊंगी, बनाने आते हैं तुम्हें। मुझे पता है।’ उसने जिस अंदाज़ में कहा, मुझे हंसी आ गई। थोड़ी देर में मैं नूडल्स की दो प्लेटें लेकर उसके सामने था।
अचानक कुछ टकराने की ज़ोर की आवाज़ आई। खिड़की खुली थी, मैं खिड़की बंद करने गया। बारिश फिर से शुरू हो गई थी। अचानक कुछ याद आ गया, मैंने जेब से पर्स निकाला, उसमें तृष्णा की तस्वीर थी। मैं मुस्कराया और तस्वीर के टुकड़े करके खिड़की से बाहर फेंक दिए। ‘क्या कर रहे थे खिड़की पर?’ अनाहिता ने पूछा।
‘कुछ नहीं, अतीत की खुरचन कुछ बाक़ी थी, आज उसे झाड़ दिया।’ मेरे होंठों पर मुस्कान थी।
‘अच्छा मैं चलता हूं।’ मैंने उसे कहा और सीढ़ियों से उतरने लगा। अचानक कुछ याद आया और मैं फिर से ऊपर चला गया। अनाहिता मुझे लौटता देख हैरान थी।
‘सुनो अनाहिता... तुम सही थीं! और हां, कुछ ज़रूरत हो तो मुझे बुला लेना, अब मैंने भागना छोड़ दिया है, सोच रहा हूं कि अब थोड़ा थम जाऊं।’ और वह फिर मुस्करा दी।
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